नई दिल्लीः साहिबावाद में पिछले सप्ताह नमो भारत रैपिड रेल के एक हिस्से का उद्घाटन करते हुए पीएम मोदी नोस्त्रदामस की तरह बोले- एक डेढ़ साल बाद नमो भारत के अगले खंड का उद्घाटन भी मैं ही करूंगा। यानी ‘24 में आउंगा तो मैं ही’। राजनीतिक हलकों में उनके इस बयान की मीमांसा तरह तरह से हो रही है। राजनीतिक प्रेक्षकों का एक तबका मोदी के इस बयान को अतिरेक की छलांग मानता है।
उनका मानना है कि 5 राज्यों के आगामी चुनाव के लिटमस टेस्ट के बाद ही 24 को लेकर नरेंद्र मोदी की नियति के बारे में कोई राय बनाई जा सकती है। अश्वमेध की मोदी की रेल इन चुनावों से होकर गर सरपट निकल जाती है तो फिर आम चुनाव की एक दूसरी ही फिजा बनेगी।
विश्वास की ऐसी छलांग के अपने जोखिम हैं। इसके इंगलिश समकक्ष ‘लीप आफ फेथ’ के अनुसार मतलब लगाए जाएं तो यह निहितार्थ है कि मोदी के इस अति विश्वास का कोई सबूत नहीं दिख रहा और परिणाम अनिश्चित है।
भाजपा में अचानक डबल इंजन के नैरेटिव की जगह सिंगल इंजन के नैरेटिव ने ले ली है। बीजेपी अलाकमान के लिए राज्यों के चुनाव 24 के पहले के छोटे मोटे स्टेशन हैं जहां नमो इंजन का हाल्ट नहीं है । बीजेपी के चुनाव प्रेक्षकों की मानें तो 24 चुनाव के ठीक पहले राज्यों के चुनाव मोदी के लिए मतदाताओं का मन टटोलने का जरिया भर है। मध्य प्रदेश की जनता के नाम उनकी चिट्ठी से भी यही जाहिर हुआ है। इस चिट्ठी में उन्होंने जनता से सीधे उन्हें वोट देकर भाजपा को जिताने की अपील की है। इस चिट्ठी के ऊपर जो लिखा है ‘एमपी के मन में मोदी और मोदी के मन में एमपी,’ इससे भी साफ है कि राज्यों के चुनाव के मोदी के लिए इस बार क्या मायने हैं। माना जा रहा है कि एमपी चुनाव का नतीजा लोगों के मन में मोदी की स्थिति का सबसे बड़ा डिपस्टिक साबित होगा। कर्नाटक में करारी हार के बाद दक्षिण भारत के तिरोहित होने की संभावना के मद्देनजर उनके लिए राज्यों के चुनावों के जरिए विंध्योत्तर मतदाताओं का मन की थाह लेना बेहद जरुरी हो गया है।
मोदी ने राज्यों के इन चुनावों में 24 के मद्देनजर एक सोची समझी रणनीति के तहत एक बडा जोखिम लिया है। हर जगह वही सीएम कैंडिडेट हैं यानी जीत का सेहरा और हार का ठीकरा दोनों उनके हिस्से ही आएगा। यह साफ है कि मोदी को अपने क्षत्रपों पर कदाचित भरोसा नहीं रहा। प्रेक्षक मानते हैं कि उनके पास इस रणनीति के अलावा और कोई चारा नहीं था। उनके अनुसार इन चुनावों, खास कर मध्य प्रदेश में नमो चल गया ( जिसकी संभावना उतनी प्रबल नहीं दिख रही) तो यह समझना चाहिए कि विपक्ष बोरिया बिस्तर अभी से समेटना शुरू कर दे।
2019 के आम चुनाव में मोदी ने अपने को राज्यों के निरपेक्ष साबित किया था। निष्कर्ष यह निकला था कि राज्यों में लोग चाहे जिन्हें भी चुनें, देश के लिए नेता चुनना हो तो ‘एकमेव मोदी’। इस बार भी भाजपा यही आस लगाए है कि आगामी राज्यों के चुनावों के चाहे जो भी नतीजे हों, देश के लोग देश के लिए तो मोदी को ही चुनेंगे। लेकिन इस बार की परिस्थितियां 2019 की परिस्थितियों के एकदम भिन्न है इसलिए पार्टी के कुछ हलकों में संशय ने भी सिर उठाया है। इस बार सामने पप्पू नहीं है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद पप्पू ने एक बड़ी चुनौती की शक्ल अख्तियार कर ली है। ‘अ-मोदी’ वोटरों के सारे दावेदरों का एक कुनबा बनना भी चिंता को बढ़ाता है। मोदी है तो मुमकिन है का अतिरेक भाव भी थोड़ा डगमगा रहा है।
यह बात ऱाष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हलके तक में उठी है कि मोदी मैजिक का क्षरण हुआ है। कर्नाटक की करारी हार के बाद इस आकलन को बल भी मिला। परिस्थितिजन्य सबूत भी चुगली कर रहे हैं कि नमो का सफर इस बार उतना आसान नहीं होगा। प्रेक्षक मानते हैं कि 2019 के उलट इस बार के 5 राज्यों के चुनाव मोदी के लिए अग्निपथ हैं।
लेकिन मामले का रोचक पहलू यह है कि गट फीलिंग ( आंत भावना) में कोई कमी नहीं आई है। मोदी के धुर विरोधी यह सुनकर सकपका से जाते हैं कि केंद्र में आएगा तो मोदी ही क्योंकि मोदी नाम की माया के वे भी कायल दिखते हैं। यह जनमानस पर मोदी के व्यक्तित्व के गहरे प्रभाव का ही प्रकटन है। 2024 के मामले में मोदी को राइट आफ (खारिज) करने की हिमाकत उसके धुर विरोधी और राजनीतिक प्रेक्षक भी नहीं कर पा रहे। चाहे वजह कुछ भी हो, मोदी के इमेज ने इतना विराट रूप अख्तियार कर लिया है कि कोई भी प्रेक्षक उनकी छाया से निकल कर पूरे यकीन के साथ कोई वैक्लिपक तस्वीर की जुर्रत नहीं कर पा रहा।
बहरहाल, 24 चुनाव के पहले अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन से भक्ति भाव के उफान, जी20 की अभूतपूर्व सफलता, विदेशों में मोदी की वजह से भारत का डंका, चांद के अबतक के असंभव भाग में चंद्रयान के उतरने के वैश्विक रिकार्ड के बूते मोदी विपक्ष के बेरोजगारी, मंहगाई, पेंशन, महिलाओं की आवरू एवं मणिपुर जैसे दहकते मुद्दों का कितना अतिक्रमण कर पाएंगे, इसकी थाह लेना मुश्किल ही नहीं असंभव है।