आज हम पहला खिदराना के नाम से विख्यात यह भूमि श्री मुक्तसर साहिब कैसे बनी इस इतिहास के बारे में जानेंगे। माघी के पवित्र दिन के अवसर पर आज हम इस पवित्र स्थान पर बने ऐतिहासिक गुरुद्वारों और उनसे जुड़े इतिहास के बारे में बात करेंगे।
मुक्तसर से श्री मुक्तसर साहिब बने इस ऐतिहासिक शहर का पहले नाम खिदराना था और इस स्थान पर खिदराणा की ढाब थी। चूँकि यह क्षेत्र जंगली था इसलिए अक्सर पानी की कमी रहती थी। चूँकि जल स्तर बहुत नीचे है इसलिए अगर कोई कुआँ लगाने की कोशिश भी करेगा तो पानी इतना खारा होगा कि पीने योग्य नहीं होगा इसलिए यहां एक तालाब खोदा गया, जिसमें बारिश का पानी जमा किया जाता था।
इस ढाबे का मालिक खिदराना था, जो फिरोजपुर जिले के जलालाबाद का रहने वाला था इसीलिए इसका नाम खिदराने दी ढाब प्रसिद्ध हुआ। इसी खिदराना की ढाब पर दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ अपना आखिरी युद्ध लड़ा था, जिसे खिदराना का युद्ध कहा जाता है। जब दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने वर्ष 1705 में धर्मयुद्ध करते हुए श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा तो जगह-जगह शत्रु सेना से युद्ध करते हुए मालवा की भूमि की ओर बढ़ गये।
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मालवा पहुंचने पर गुरु जी ने चौधरी कपूरे से किले की मांग की, लेकिन मुगल शासन के डर से चौधरी कपूरे ने किला देने से इनकार कर दिया। गुरुजी ने सिख सैनिकों के साथ खिदराना की ओर प्रस्थान किया और खिदराना की ढाब पर पहुँचे। गुरुजी खिदराने अभी आये ही थे कि सरहिन्द के सूबेदार के नेतृत्व में शत्रु सेना यहाँ आ पहुँची। गुरुजी और उनके 40 महान सिख योद्धा, जो एक बार बेदावा गए थे, उन्होंने गुरुजी के साथ खिदराना की ढाब पर मोर्चा लगाया।
खिदराना का ढाबा इस समय सूखा पड़ा हुआ था। उसके चारों ओर झाड़ियाँ उगी हुई थीं। सिंहों ने झाड़ियों का आश्रय लिया और मुग़ल सैनिकों की आने वाली सेना पर बाजों की तरह झपट पड़े।