गुस्ताखी माफ हरियाणा- पवन कुमार बंसल! ऑफॉर्डेबल हाउसिंग की अस्लायित. रणबीर सिंह फोगाट की खोजपुर्ण रिपोर्ट.।रु.३३,४९,२००/- का फ्लैट अर्थात सिर्फ दीवारें और कुछ फिटिंग्स क्या एक ‘अफोर्डेबल हाउस’ कहा जा सकता है. लगता है बहुमंजिला इमारत बना कर इसमें फ्लैट्स की रचना करने वाले के इडिया से लाकर अखबार में विज्ञापन देने के बीच जितने भी लोगों का काम हुआ उन्हें अंग्रेजी ही नहीं भारतीय भाषाएं भी ठीक से नहीं आतीं. अमूमन ऐसे विज्ञापन अंग्रेजी भाषा के अखबार में ही क्यों आते हैं, जबकि ढिंढोरा ‘अफोर्डेबल’ का पीटा जा रहा है. ‘अफोर्डेबल’ ? आखिर किसके लिए. मध्यम वर्गीय परिवार के लिए या उच्च-मध्यमवर्गीय परिवार हेतु?
हरयाणा सरकार -जाहिरा तौर से प्रधानमन्त्री के निर्देश के अनुसार, बड़े शहरों में अफोर्डेबल हाउस बना कर देने के लिए प्रयासरत नज़र आती है. टाइप-२ के एक रूम सेट वाले एक फ्लैट -जिसका रकबा सिर्फ ३८२.५५ वर्ग फुट का है, के लिए रु.२०,३२,७५०/- कीमत निर्धारित की गयी है. सोचिये इस न्यूनतम निर्धारित कीमत वाले फ्लैट को कोई अफोर्डेबल कैसे कह सकता है? मुझे नहीं मालूम स्टेट स्पॉन्सर्ड यह झूठ या ठगी कितने चलेगी, लेकिन लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करना अशोभनीय और अनैतिक है. घर बनाने के लिए लोगों को जमीन मिलने में अनेक तरह की मुश्किलें पेश आती हैं. जहां मिलती है, वह जगह काम से बहुत दूर है. घर में वाहन न हो, पानी और बिजली भी सही से न मिले, रास्ता ठीक न हो तो सबको दिक्कत होती है. आजकल ठेठ देहाती परिवेश किसी को नहीं चाहिए. इसलिए लोग जैसे-तैसे करके शहर में एक अदद ‘अफोर्डेबल हाउस’ लेने का इंतजाम कर ही लेते हैं और फिर शायद गलत फैसला हो गया है, इसके लिए उम्र भर के लिए पछताते रहते हैं. बीमारी, लड़कियों के विवाह, उच्च शिक्षा और अच्छा खाने-पीने के लिए भी पैसा चाहिये. इसे सरकार कैसे ‘अफोर्डेबल’ कर सकती है? साम्यवादी देशों में मजदूर वर्ग के लिए, और सेंट्रल अमेरिकन कॉन्टिनेंट के देशों, चीन जैसे देशों में गरीबों के छिप्पे हुए मल्टी-स्टोरी हाउसिंग काम्प्लेक्स जो किसी स्लम से कम नहीं, की नक़ल पर भारत में लोगों की जिन्दगी को जमीन से दूर १००-५०० फुट की ऊँचाई पर बने हुए भद्दे से फ्लैट में डाल कर बर्बाद किया जा रहा है. गुडगांव इसका सबसे गंदा माहौल पेश करता है. यह सब भयावह है और जिंदगियों को नरक भोगने की सजा देने जैसा है.
इसी जैसा भयावह नरक गुडगांव से फरीदाबाद वाले रास्ते पर बड़े लुभावने विज्ञापनों के जरिये बेचा जा रहा है. मार्केटिंग में ‘एक्सपर्ट’ एडवरटाइजिंग कमपनियों के कॉपी राइटर्स बड़े पैसे लेकर ऐसी डिस्प्ले ‘एड’ तैयार करते हैं जिहें बनवाने और किसी बड़े अखबार में साबुत पन्ने पर देने के लिए विज्ञापनदाता को एक बारगी ही १५ लाख रुपये देने होते हैं. कॉपी राइटर्स क्या लिख कर ग्राहकों को आकर्षित करते हैं जरा देखिये: (१) ३.५ बेडरूम, हाल, किचन, २१०६ स्क्वायर फीट अपार्टमेंट, स्टार्टिंग फ्रॉम रु.१.६५ नहीं-नहीं १.४५ करोड़ और २० लाख डिस्काउंट पर. फिर कहते हैं ‘हाउस फॉर एन ओपुलेंट लाइफस्टाइल विद स्टेबिलिटी टू यूज़ बाय थ्री जनरेशन्स’. (२) आगे कहा है: १००% आर.सी.सी. बिल्डिंग, यूनिफार्म क्वालिटी कंस्ट्रक्शन, नेग्लिजिबल मेंटेनेंस, मोनोलिथिक अपार्टमेंट्स, लीकेज, सीपेज एंड क्रैक-फ्री. साथ में क्रिकेट पिच, जॉगिंग ट्रैक, इनफिनिटी एज पूल आदि-आदि. यह ‘इनफिनिटी एज पूल’ क्या होता है मुझे नहीं मालूम, लेकिन यह एक तालाब है जिसमें नहाने-तैरने और जल-क्रीड़ा करने के लिए पानी भरा जा सकता है. पानी के लिए तरसते इस इलाके में करोड़ों लीटर वर्षा जल व्यर्थ समझकर बहा दिया जाता है. बरसात को गुडगांव डेवलपमेंट एजेंसी ने एक भयानक समस्या मान लिया है जो गुडगांव वासियों को वेनिस का आभास दिलाने हर साल मूसलाधार होती है.
सरकारी एजेंसीज और प्राइवेट बिल्डर्स लोगों को आखिर क्या दे रहे हैं, कौन सी दुनिया में जीने को मजबूर कर रहे हैं? गुडगांव में ५० प्रतिशत से अधिक लोग मानसिक और मेटाबोलिक विकारों के अलावा एक कसी-दबी हुयी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं. यह एक तरह से खुद को यातना देने जैसा है. हम लोगों का आदतें स्पेसियल लाइफ की हैं, वर्टीकल लाइफ की नहीं. यह मानव स्वभाव के अनुकूल भी नहीं है. लोगों को ही रिहायशी घर बनाने के लिए जमीनें दी जानी चाहियें. बिल्डर्स को बाहर निकाल देना चाहिए. वरना गुड़गांव बिलकुल वैसे ही नरक का आभास देगा जैसा हमें ‘ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालयों’ में बने हुए चित्रों में देखने को मिलता है.