पानीपत। हरियाणा में एक युवक और एक किशोरी अपने जीवन के सभी भौतिक सुखों का त्याग कर सन्यास के मार्ग पर चल पड़े हैं। हर साल जैन धर्म में बड़े पैमाने पर युवा और किशोर उम्र के बच्चे दीक्षा लेकर साधु और साध्वी बन रहे हैं। उनका सांसारिक जीवन के प्रति मोहभंग हो रहा है और वह ऐसा रास्ता चुन रहे हैं, जिसे वह असल में जीवन के वैराग्य को लेकर सही और अर्थपूर्ण मान रहे हैं। ये ज्यादातर बड़े और संपन्न घरों के बच्चे हैं या अपना अच्छा करियर छोड़कर इस ओर आ रहे हैं।
जैन धर्म की शिक्षाओं का अनुसरण
पानीपत में 16 साल की अंशिका और 21 साल के सूरज पंडित साधु और साध्वी बनेंगे। दोनों आज श्री एसएस जैन सभा गांधी मंडी में दीक्षा ग्रहण करेंगे। उत्तरप्रदेश के रहने वाले सूरज पंडित घराने से हैं, उनके पिता विसराम पंडित खेती करते हैं। वहीं अंशिका दिल्ली की रहने वाली है। वह माता-पिता के साथ गुरुओं के दर्शन करने पानीपत आई थी। यहां गुरुओं काे देखकर ऐसा ही जीवन जीने की इच्छा मन में जागी और फिर माता-पिता काे भी मनाया। सूरज और अंशिका लगभग 4 वर्षों से जैन धर्म की शिक्षाओं का अनुसरण कर रहे हैं। इससे पहले बुधवार काे मंगल मेहंदी आलेखन का मांगलिक कार्यक्रम हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति प्रसिद्ध गायक महाराष्ट्र के तरुण मोदी ने सभी को संगीत लहरी से सराबोर कर दिया।
गुरुओं के दर्शन करने जाती थीं अंशिका
अंशिका का जन्म दिल्ली के द्वारिका में हुआ था। वह 16 वर्ष की आयु में संसार की सुख-सुविधाओं काे त्याग रही हैं। उनके पिता सुभाष बंसल दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करते हैं। परिवार में उनकी मां, एक भाई व दाे बहनें हैं। अंशिका परिवार के साथ गुरु के दर्शनों के लिए जाती थीं। 4 वर्ष पहले गुरु दर्शनों के लिए पानीपत आई ताे उसे ऐसे लगा जैसे सबकुछ मिल गया हाे। उसने माता-पिता को यह इच्छा जताई। फिर श्रमणी गौरव महासाध्वी शक्ति प्रभा के चरणों में बच्ची काे अर्पण कर दिया।
मास्क पहने गुरुओं काे देखा ताे ये जीवन चुना
सूरज उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के दुरगुडवा गांव के रहने वाले हैं। पिता विसराम पंडित और मां सुनीता पंडित हैं। गांव में उन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की। दिल्ली में पहली बार जैन संत ओजस्वमी वक्ता रमेश मुनि महाराज काे देखा। उनके मन में पहला ही प्रश्न था कि जैन संत मुंह क्यों ढक कर रखते हैं, बोलते कैसे हैं। फिर उन्होंने इसी मार्ग पर चलने की इच्छा जाहिर की।
अंशिका और सूरज के सन्यास की ही नहीं ऐसी बहुत सी ऐसी खबरें सुनने और पढ़ने में आती हैं, जहां कम उम्र के लड़के लड़कियां सभी सुख छोड़कर साधु और साध्वी बनने की कठिन राह पर निकल पड़ते हैं। जिस उम्र में दुनिया पैसा, प्रेम और सफलता के बारे में सोचती है, वो ये सब त्याग देते हैं। आखिर क्या वजह है कि इतनी कम उम्र में इतने सारे लोग जैन धर्म की दीक्षा ले लेते हैं।
क्या है जैन धर्म में दीक्षा लेना?
जैन धर्म में दीक्षा लेना यानी सभी भौतिक सुख-सुविधाएं त्यागकर एक सन्यासी का जीवन बिताने के लिए खुद को समर्पित कर देना। जैन धर्म में इसे ‘चरित्र’ या ‘महानिभिश्रमण’ भी कहा जाता है। दीक्षा समारोह एक कार्यक्रम होता है जिसमें होने वाले रीति रिवाजों के बाद से दीक्षा लेने वाले लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बन जाती हैं।
इसके बाद क्या करना होता है
दीक्षा लेने के साथ ही सभी को इन पांच व्रतों के पालन के लिए भी समर्पित होना पड़ता है:
– अहिंसा: किसी भी जीवित प्राणी को अपने तन, मन या वचन से हानि ना पहुंचाना
– सत्य: हमेशा सच बोलना और सच का ही साथ देना
– अस्तेय: किसी दूसरे के सामन पर बुरी नजर ना डालना और लालच से दूर रहना
– ब्रह्मचर्य: अपनी सभी इन्द्रियों पर काबू करना और किसी से साथ भी संबंध ना बनाना
– अपरिग्रह: जितनी जरुरत है उतना ही अपने पास रखना, जरूरत से ज्यादा संचित ना करना.
जैन धर्म अकेला ऐसा धर्म बचा है जहां अब भी साधु और साध्वियां वाकई बहुत कड़ा जीवन जीते हैं और न्यूनतम भौतिक सुविधाएं भी नहीं लेते। जो चीजें हमे शरीर को कष्ट देना लग सकती हैं, वो उनके जीवन का सामान्य पहलू होती हैं और उसमें उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती।
अपने बाल खुद नोचने होते हैं
दीक्षा लेने के लिए और उसके बाद सभी साधुओं और साध्वियों को अपना घर, कारोबार, महंगे कपड़े, ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़कर पूरी तरह से सन्यासी जीवन में डूब जाना पड़ता है। इस प्रक्रिया का आखिरी चरण पूरा करने के लिए सभी साधुओं और साध्वियों को अपने बाल अपने ही हाथों से नोचकर सिर से अलग करने पड़ते हैं।
सिर्फ एक सूती कपड़ों में रहते हैं जैन मुनि और साध्वी
सभी साध्वियों को इसके बाद सफेद रंग की सूती साड़ी पहनने के लिए दी जाती है। वहीं साधु पूरी तरह से कपड़ों का त्याग कर देते हैं। वह दीक्षा लेने के बाद तनिक सा भी वह सुख नहीं हासिल करते हैं, जिसे भौतिक सुख कहते हैं। सही मायनों में वह दुनिया में जिस तरह की कठिन जीवनशैली को अपनाते हैं, वो अब दुनिया में किसी दूसरे धर्म में तो नजर नहीं आती।
क्यों बढ़ रहा है युवाओं में इसके प्रति क्रेज
पिछले कुछ सालों में हर साल बड़े पैमाने पर कम उम्र के बच्चे और युवा लोग जैन धर्म में दीक्षा ले रहे हैं। इसकी वजह क्या है. इनमें सभी के कारण भले ही अलग-अलग हों लेकिन उसका मूल एक ही है। इनमें से हर किसी का मानना है कि बीते काफी समय से वो बहुत बेचैन महसूस करते थे। भौतिक सुख-सुविधाएं उन्हें वो खुशियां नहीं दे पा रही थीं, जिसकी उन्हें तलाश थी। इसीलिए उन्होंने दुनिया की नश्वरता को त्यागते हुए सादा जीवन बिताने और खुद को ईश-भक्ति में समर्पित करने का निर्णय लिया। मन में वैराग्य जागने लगता है। जैन धर्म के मुनियों की कठिन जीवनशैली उन्हें असली जीवन का सार लगने लगती है। चूंकि जैन धर्म में बहुत कम उम्र से जैन बच्चे अपने धर्म के साधु और साध्वियों के संपर्क में आते हैं और उनके जीवन को देखते हैं तो उससे प्रभावित होने लगते हैं। वहीँ घर में पेरेंट्स का धर्म से खासा जुड़ाव भी उन्हें इस ओर ले जाता है.
दीक्षा लेने के बाद कैसा होता है जीवन
दीक्षा लेने यानी सन्यासी जीवन में पदार्पण के बाद जैन साधु और साध्वियों का जीवन बहुत संतुलित और अनुशासित हो जाता है।सूर्यास्त के बाद जैन साधु और साध्वियां पानी की एक बूंद और अन्न का एक दाना भी नहीं खाते हैं। सूर्योदय होने के बाद भी ये लोग करीब 48 मिनट का इंतजार करते हैं, उसके बाद ही पानी पीते हैं।
भिक्षा मांगकर ही खाना खाते है
जैन साधु और साध्वियां अपने लिए कभी भोजन नहीं पकाते हैं। ना ही उनके लिए आश्रम में कोई भोजन बनाता है। बल्कि ये लोग घर-घर जाकर भोजन के लिए भिक्षा मांगते हैं। इस प्रथा को ‘गोचरी’ कहा जाता है। जिस तरह गाय हर द्वार से थोड़ा-थोड़ा भोजन करती है, उसी तरह जैन मुनियों को भी एक घर से बहुत सारा भोजन लेने की अनुमति नहीं होती है। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाता है कि जिन घरों से वो भिक्षा मांगने जाएं, वहां शाकाहारी भोजन ही बनाया जाता हो।
विहार या पदयात्रा करनी होती है
जैन मुनि किसी भी प्रकार की गाड़ी या यात्रा के साधन का प्रयोग नहीं करते हैं। वो जितना हो सके पैदल ही चलते हैं और लंबी दूरियां भी चलकर ही पूरी करने में विश्वास रखते हैं। किसी भी एक स्थान पर उन्हें अधिक दिनों तक रुकने की अनुमति नहीं होती। बारिश के मौसम के 4 महीने छोड़कर ये लोग पूरे साल यात्रा ही करते रहते हैं। इस यात्रा में उन्हें नंगे पैर और बिना किसी चप्पल या जूतों के करनी पड़ती है। इसे पदयात्रा कहा जाता है और इसका पालन मुनियों का धर्म है। उनका जीवन पूरी तरह से ध्यान और धर्म के प्रति समर्पित हो जाता है।