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हरियाणा की विश्व प्रसिद्ध डाट होली, कढ़ाहों में पकता रंग
Friday, November 22, 2024
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हरियाणा की विश्व प्रसिद्ध डाट होली, कढ़ाहों में पकता रंग, युवा दिखाते जोर, मृत्यु पर भी नहीं रूकती परंपरा

पानीपत। हरियाणा की ऐतिहासिक नगरी पानीपत में अब की बार 906वीं ऐतिहासिक डाट होली खेली जायेगी। सन् 1288 से चली आ रही परंपरा के तहत गांव नौल्था की चौपालों पर 906 वीं डाट होली की धूम अभी से शुरू हो गई है। बता दें डाट होली के दौरान आकर्षण का केंद्र युवाओं के दो समूहों के बीच एक तरह से रंगों के बीच डटे रहने का मुकाबला होता है। गांव में बाकायदा बड़े-बड़े कढ़ाहों में रंग पकाया जाता है। महिलाएं घरों की छतों से ये पका हुआ रंग टोलियों पर डालती हैं। गलियों में समूहों में बंटे युवा अपने सीने का जोर दिखाते हैं और इस जोर आजमाइश में जो गिर जाता है, पीछे हट जाता है वह हार जाता है। फाग वाले दिन गांव में हिंदू देवी-देवताओं की झांकियां निकाली जाती हैं।

लाठे वाले बाबा ने शुरू की थी परंपरा

इसमें गांव के पवित्र डेरा बाबा लाठे वाला के साधु-संतों की पालकी सबसे आगे चलती है। ग्रामीणों के अनुसार बाबा लाठे वाले, 905 साल पहले फाग के दौरान मथुरा के दाऊजी गांव गए थे। वहां फाग उत्सव में लोगों का आपसी प्रेम और भाईचारा देख कर प्रभावित हुए। उन्होंने गांव आकर उत्सव को मनाने का फैसला लिया और तभी से नौल्था में हर साल डाट होली उत्सव मनाया जा रहा है। गांव के लोग इस ऐतिहासिक परंपरा के लिए अंग्रेजों तक से लोहा ले चुके हैं। नौल्था गांव की आबादी करीब 15 हजार है और पूरा गांव जहां रंगों में सराबोर होकर होली खेलता है, यहां की ऐतिहासिक होली को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और इसमें भाग लेते हैं।

ये होता है नौल्था की होली में

सुबह सबसे पहले देवर-भाभी के बीच होली खेली जाती है। इसके बाद गांव में विभिन्न तरह की झांकियां निकलती हैं। इसमें बाबा लाठे वाली की झांकी सबसे पहले निकलती है। दूसरे नंबर पर गौमाता की झांकी होती है। एक के बाद एक कुल 12 से 15 धार्मिक झांकियां निकाली जाती हैं। झांकियां निकालने के बाद दोपहर को गांव की सभी 6 चौपालों में बड़े-बड़े कढ़ाहों में बाजारों से लाया रंग पकाया जाता है। ये कढ़ाहे गांवों के ही होते हैं। रंगों को पकाने के लिए गर्म किया जाता है। कुछ ही देर बाद रंग पक जाते हैं और फिर गांव में डाट होली का उत्सव शुरू होता है।

ऐसे खेली जाती है डाट होली

डाट का हरियाणवी भाषा में मतलब होता है सामने से रोकना। यह होली में 36 बिरादरी के लोग मिलकर मनाते है। होली के त्योहार पर अमूमन देखने को मिलता है कि किसी पर रंग लगाए तो वो भागने लगता है, लेकिन इन दोनों गांव के युवा एक दीवार के साथ लगकर बैठ जाते हैं। जितना चाहे रंग डालो, पीछे नहीं हटते। इसी तरह दो टोलियां एक-दूसरे के सामने हो जाती हैं। ऊपर से रंग बरसाया जाता है। जो टोली, दूसरी टोली को पीछे धकेल देती है, वो जीत जाती है। इसे कहते हैं डाट होली। यह पानीपत के गांव नौल्था में खेली जाती है। गांव की महिलाएं घरों की छत पर बैठकर युवाओं पर कढ़ाई में गर्म किया रंग डालती हैं।

जो टीम गिरी वो हारी

असल में तो डाट का सही अर्थ सपोर्ट देना है। डाट में दो समूह बन जाते हैं। रस्साकशी खेल की तरह आमने-सामने होते हैं। दोनों समूह के लोग सीने से एक-दूसरे को धक्का देते हैं। जो टीम नीचे गिर जाती है, वो हार जाती है। इसे सूखी डाट कहते हैं। इसी तरह फाग के दिन चौपाल के साथ खड़े हो जाते हैं और ऊपर से रंग डाला जाता है। इसे रंगों की डाट कहते हैं। महिला बच्चे सभी इस होली को देखने के लिए उत्साहित रहते हैं।

15 दिन पहले शुरू हो जाती है रिहर्सल

15 दिन पहले ही 6 मोहल्लों के लोग डाट अपने हाथ ऊपर की तरफ बांधकर एक-दूसरे को धकेलने की प्रैक्टिस करना शुरू कर देते हैं। यह प्रैक्टिस भी मोहल्ला बदल-बदलकर की जाती है। फाग का रंग जब चढ़ता है तो गांव की 9 चौपालों पर हजारों लोग एक साथ इकट्ठा होकर होली खेलते हैं। पंचायत ने दो दिन पहले ही कड़ाहे बुक करवा दिए और गांव में मुनादी करवा दी गई है। सभी लोग जाति-धर्म भुलाकर इस उत्सव में शरीक होते हैं।

मौत होने पर भी नहीं रोकी जाती परंपरा

कहा जाता है कि सालों से चली आ रही यह परंपरा चलती रहे इसके लिए गांव के बड़े बुजुर्ग भी सहयोग देते हैं। अगर गांव में होली के दिन या होली से पहले पहले किसी कारणवश किसी की मौत भी हो जाए तो भी इस होली को बंद नहीं किया जाता। बुजुर्ग बताते हैं कि होली वाले दिन या होली से पहले किसी के परिवार में किसी सदस्य की अगर मृत्यु हो जाती है, तो उनके परिवार का ही एक सदस्य गांव में आकर रंग बिखेर कर होली मनाने की इजाजत देता है और उसी उत्साह के साथ डाट होली को मनाया जाता है।

ग्रामीणों के अनुसार अंग्रेजों के समय में गांव में एक धूमन जैलदार होता था, जिसका एक बेटा सरदारा था। गांव में होली की पूरी तैयारी थी, लेकिन उसी समय धूमन के बेटे की मौत हो गई। गांव में शोक था और किसी ने होली नहीं खेली। धूमन ने गांव की परंपरा टूटती देखी तो चौपाल से एक बाल्टी रंग की भरी और बेटे की अर्थी पर डाल दी। सभी गांव वालों को कहा कि भगवान की मर्जी से आना-जाना होता है। त्योहार भुलाए नहीं जा सकते। तब से हर वर्ष इसी तरीके से होली खेली जाती है।

एक बार नहीं मनाई थी होली, पूरे गांव को भुगतना पड़ा था खामियाजा

नौल्था के मौजिज व्यक्तियों ने बताया कि परंपरा ऐतिहासिक है। वे अपील करते हैं कि प्रशासन भी गांव नौल्था आकर विश्व भर में विख्यात इस पर्व को देखे और मनाए। उन्होंने बताया कि गांव वालों ने अब तक के इतिहास में एक बार यह पर्व इस तरह नहीं मनाया था। इसका खामियाजा पूरे गांव को किसी न किसी रूप में भरना पड़ा था, इसलिए पर्व को ग्रामीण मनाने से नहीं चूकते हैं।

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