गुस्ताखी माफ़ हरियाणा- पवन कुमार बंसल : भाषा के कुछ ख़ास शब्दों के प्रयोग के बहाने से एक कम्युनल चिंगारी को ज़िंदा रखा जाना क्या जर्नलिस्टिक एथिक्स में एक ख़ास तरह से ध्यानाकर्षण नहीं करता? मैंने अपनी टिप्पणी के सिर्फ ‘द हिन्दू’ और ‘फ्रंटलाइन’ पत्रिका (दोनों अंग्रेजी भाषा के प्रकाशन) को इसलिए चुना कि ग्रुप के ये दोनों प्रकाशन बहुपठनीय हैं और काफी असरदार भी. मैंने सर्फ नूह में हुयी हिंसा और इसके प्रसार से सम्बंधित दो ही लेखों को चुना: द हिन्दू के ५ अगस्त २०२३ में प्रकाशित ‘इन द शैडो ऑफ़ द मिलेनियम सिटी’ और पत्रिका के २५ अगस्त २०२३ में इस्मत आरा (दिल्ली ब्यूरो) के लेख ‘द नूह गेम इन हरयाणा’.
लेख अच्छे हैं और इनमें कुछ ऐतिहासिक जानकारी भी है, लेकिन ‘अच्छाई’ और ‘ऐतिहासिक’ शायद दोनों ही पर्याप्त नहीं और न ही इन्हें क्वालीफाई करने के लिए कुछ खास और ध्यानाकर्षक टिप्पणियां लेखों में की गयी है. द हिन्दू का लेख ‘माइल्ड’ है परन्तु इस्मत आरा ने प्रचलित वोकेबुलरी से कुछ ऐसे शब्द भी इस्तेमाल कर लिए जो चालू हैं और इस माने में भिन्न नहीं कि वे एक ‘सिचुएशन’ को एथनोग्राफिक और सोशल क्राइसिस के रूप में देखने के लिए पाठक को सोचने को मजबूर कर सकते हैं कि क्यों इस पूरे घटनाक्रम ‘एनाटमी’ को हम एक ‘कम्युनल वायलेंस’ के तरीके से देखें जैसा कि मीडिया में काम करने वाले लेखक हमें ‘दिखाना’ या ‘महसूस’ करना चाहते हैं. नूह में हुयी हिंसा को लेकर किसी भी नामी पत्रकार ने प्रोफ़ेसर एजाज़ अहमद से या शैल जी से बात नहीं कि, उनके कोट्स नहीं दिए. क्यों? मैं भी मेवात में सन १९९४ से शोधरत हूं लेकिन उधर की नेचुरल और कल्चरल हिस्ट्री के साथ जो कुछ सामाजिक तौर से उपलब्ध हो पा रहा है, उसे हासिल करने और इसका डॉक्यूमेंटेशन करने के लिए. मीडिया में कोई ग्रुप या प्रकाशन ‘साइज़’ और ‘रेप्युटेशन’ में कितना भी बड़ा क्यों न हो, भारत में मुसलमान और हिन्दू को लेकर सही और सहिष्णु एवं नॉन-कम्युनल या तटस्थ शब्दों का इस्तेमाल करना अपरिहार्य होता है. मीडिया में इन शब्दों के इस्तेमाल से ‘कम्युनल’ की चिंगारी हमेशा बनी रह सकती हैl