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सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों से पहले केंद्र सरकार को दिया झटका
Friday, November 22, 2024
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सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों से पहले केंद्र सरकार को दिया झटका, चुनावी बॉन्ड पर लगाई रोक, बताया असंवैधानिक

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा चुनाव से करीब दो महीने पहले केंद्र सरकार समेत तमाम राजनीतिक दलों को करारा झटका लगा है। शीर्ष अदालत की संवैधानिक बेंच ने चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को खत्म कर दिया है, जिसे अप्रैल 2019 से लागू किया गया था। इसके अलावा राजनीतिक दलों को आदेश दिया है कि वे चुनावी बॉन्ड से मिली फंडिंग को वापस भी करें। इससे सबसे बड़ा झटका भाजपा को ही माना जा रहा है क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड्स से सबसे ज्यादा चंदा उसे ही मिल रहा था।

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?

इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह का वचन पत्र है, जिसके जरिए राजनीतिक दलों को चंदा दिया जाता है। कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की चुनिंदा शाखाओं से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद सकती है और अपनी पसंद की पॉलिटिकल पार्टी को गुमनाम तरीके से चंदा दे सकती है। उसका नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता। भारत सरकार ने 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड की घोषणा की थी और जनवरी 2018 से इसे लागू किया था। इस तरह SBI राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए बॉन्ड जारी करता है। इस योजना के जरिए 1 हजार, 10 हजार, एक लाख रुपए से लेकर 1 करोड़ तक अलग-अलग राशि के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं।

इन बॉन्ड अवधि केवल 15 दिनों की होती है। इस अवधि में इसका इस्तेमाल राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है। इसके भी अपने नियम हैं। उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दिया जाएगा, जिसे चुनाव आयोग की ओर से मान्यता मिली हो। विधानसभा या लोकसभा चुनाव में डाले गए मतों का न्यूनतम एक फीसदी वोट हासिल किया हो।

कहां से शुरू हुई दिक्कत?

इलेक्ट्रोरल बॉन्ड की शुरुआत करते वक्त भारत सरकार ने यह कहा था कि इसके जरिए देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था बनेगी। लेकिन इसकी शुरुआत के बाद यह योजना सवालों में घिरने लगी। सवाल उठा कि इलेक्टोरल बॉन्ड की मदद से चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी, लेकिन इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है। कहा गया कि यह योजना इसलिए बनाई गई थी ताकि बड़े कॉर्पोरेट घराने अपनी पहचान बताए बिना पैसे दान कर सकें। इसको लेकर दो याचिकाएं दायर की गई थीं। पहली याचिका एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और ग़ैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज़ ने मिलकर दायर की थी। दूसरी याचिका, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने दायर की थी।

याचिकाओं में कहा गया था कि भारत और विदेशी कंपनियों के जरिए मिलने वाला चंदा गुमनाम फंडिंग है। इससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जा रहा है। यह योजना नागरिकों के ‘जानने के अधिकार’ का उल्लंघन करती है। हालांकि, इस पर सरकार का तर्क था कि ये इलेक्टोरल बॉन्ड पॉलिटिकल पार्टी को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता लाते हैं। इसमें काले धन की अदला-बदली नहीं होती। चंदा हासिल करने का तरीका स्पष्ट है।

अदालत ने कहा है कि चुनावी बॉन्ड्स पर आज से ही रोक लगाई जाती है। 12 अप्रैल, 2019 से अब तक चुनावी बॉन्ड्स किन-किन लोगों ने खरीदे और कितनी रकम लगाई, यह जानकारी स्टेट बैंक को देनी होगी। अदालत ने कहा कि यह जानकारी पहले स्टेट बैंक की ओर से चुनाव आयोग को दी जाएगी। फिर आयोग की ओर से जनता को यह जानकारी मिलेगी। अदालत ने कहा कि चुनावी बॉन्ड की इस तरह की खरीद से ब्लैक मनी को बढ़ावा ही मिलेगा। इससे कोई रोक नहीं लगेगी और पारदर्शिता का भी हनन होता है।

बेंच ने कहा कि यदि ये इलेक्टोरल बॉन्ड बेनामी खरीद के तहत लिए जाते हैं तो यह सूचना के अधिकार के नियम का उल्लंघन है। हम इस संवैधानिक अधिकार के उल्लंघन पर आंख बंद नहीं कर सकते। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि जनता को यह जानने का हक है कि आखिर राजनीतिक दलों के पास पैसे कहां से आते हैं और कहां जाते हैं। बेंच ने कहा कि सरकार को चुनावी प्रक्रिया में काला धन रोकने के लिए कुछ और तरीकों पर भी विचार करना चाहिए।

इलेक्टोरल बॉन्ड्स के खिलाफ दायर अर्जियों में कहा गया था कि इस तरह का नियम गलत है। इससे ब्लैक मनी खत्म नहीं होगा बल्कि बढ़ ही सकता है। वहीं सरकार का पक्ष था कि सिर्फ जनता के पास यह जानकारी नहीं रहेगी। सरकार, बैंक और आयकर विभाग के पास यह डेटा रहेगा। ऐसे में इससे किसी तरह की गड़बड़ी नहीं हो सकती। सरकार के इस तर्क को अदालत ने खारिज कर दिया कि जनता को इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी न देने में कुछ गलत नहीं है। बेंच ने कहा कि ऐसा नियम तो आरटीआई का उल्लंघन है।

अदालत ने कहा कि जनता को यह जानने का हक है कि वह जिन राजनीतिक दलों को वोट देती है, उनके पास पैसा कहां से आता है और कहां जाता है। संविधान का उल्लंघन है, यदि जनता को चुनावी फंडिंग के बारे में जानकारी नहीं दी जा जाती। इस प्रकार शीर्ष अदालत ने 2018 में आई चुनावी बॉन्ड्स की व्यवस्था पर बड़ा फैसला दिया है। अदालत ने इस मामले में चुनाव आयोग की भी खिंचाई की और सवाल पूछा कि आखिर वह चुनावी बॉन्ड्स की जानकारी अपने पास क्यों नहीं रखता।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्या बोली भाजपा

शीर्ष अदालत के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा नेता नलिन कोहली ने कहा कि इससे हमारे लिए कोई झटका नहीं है। उन्होंने कहा कि इससे फंडिंग सिर्फ भाजपा को ही नहीं सभी दलों को मिल रही थी। कोहली ने कहा कि यदि अदालत ने स्कीम को रद्द किया है तो उसे लगा होगा कि इसमें कुछ गलत है। उन्होंने कहा कि अब चुनाव आयोग के सुझावों के साथ कोई नई चीज लाई जाए। यह जरूरी है कि चुनावी फंडिंग साफ-सुथरी हो और ब्लैक मनी पर रोक लगाई जाए। मूल मकसद यही है।

अदालत में क्या-क्या दी गईं दलीलें, RTI बना मुख्य सवाल

कंपनीज ऐक्ट और जनप्रतिनिधित्व ऐक्ट में संशोधन करते हुए चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था लाई गई थी। इसके तहत किसी भी दूसरे दल या फिर आम लोगों को चुनावी बॉन्ड की खरीद की जानकारी नहीं मिल सकती। अदालत में सुनवाई के दौरान जब यह सवाल उठा तो सरकार ने कहा कि यह जानकारी बैंक, आयकर विभाग के पास तो रहेगी ही। इस पर याचियों ने कहा कि भले ही दूसरे दलों को जानकारी न मिले, लेकिन जनता को तो पता चलना ही चाहिए। यह तो आरटीआई से भी बाहर है, जो गलत है।

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